भाव लग्न का महत्व और निकालने की विधि ।

           ।। लग्न परिचय और निर्धारण  ।।

     
 तात्कालार्क: सायन: स्वोदघ्ना: भोग्यांशा: खत्र्युद्घृता भोग्यकाल: ।
एवं यातांशैर्भवेद्याताकालो भोग्य: शोध्य$भीष्टनाडीपलेभ्य: ।।
तदनु जहीह गृहदयांश्च शेषं गगनगुणघ्नभशुद्धहल्लवाद्यम ।
सहितमजादिगृहैशुद्धपूर्वैर्भवति विलग्नमदो$यनांश हीनम् ।।
जिस दिन का और जिस समय का लग्न निर्धारण करना है उस दिन का इष्टकाल, अयनांश, और स्पष्ट सूर्य को नोट कर लेना चाहिये ।
इष्टकालिक स्पष्ट सूर्य मे अयनांश जोडकर सायन सूर्य बना लेना चाहिये ।
अयनांश कैसे निकालते है इसका विवरण अलग से दिया गया है पाठक गण इसी ब्लाग मे अयनांश साधन की रीति नामक पोस्ट पढ सकते है ।
सायन सूर्य के अंशों को 30 मे घटाकर भोग्यांश निकालकर नोट कर लेना चाहिये ।
इस भोग्यांश मे स्वोदय मान से गुणा कर 30 से भाग देने पर लब्धि पलादि भोग्य काल होता है ।
इस पलादि भोग्य काल को प्लात्मक इष्टकाल मे घटाकर शेष को सायन सूर्य की अग्रिम राशि के स्वोदय मान क्रम से घटाना चाहिए जितनी राशियों के स्वोदय मान घट जाये वो शुद्ध राशि और जो न घटे वह अशुद्ध राशि होता है । फिर शेष को 30 से गुणा करके अशुद्ध राशि के स्वोदय मान से भाग देने पर लब्धि अंशादि को मेषादि शुद्ध राशि मे जोडकर अयनांश घटाने से स्पष्ट लग्न होता है ।
                       ।। उदाहरण ।।
माना कि हमे 21/09/2017 को दिन 10.00 AM वाराणसी उतर प्रदेश का लग्न ग्यात करना है ।
सबसे पहले अयनांश 24/54/35 नोट किया ।
इष्टकाल सूर्योदय विधि से 10/27/35 नोट किया ।
पंचांग से प्रातः कालीन सूर्य स्पष्ट 5/3/30/36 नोट किया ।सबसे पहले प्रातः कालीन सूर्य स्पष्ट मे इष्टकाल जोडकर इष्टकालिक सूर्य स्पष्ट प्राप्त करेंगे । जैसे सूर्य स्पष्ट 5/3/30/36 मे 10/27/35 जोडा तो इष्टकालिक स्पष्ट सूर्य 5/3/42/03 के रूप मे प्राप्त हुआ ।
अब इस स्पष्ट सूर्य मे अयनांश जोडकर सायन सूर्य बनायेगे । जैसे  5/3/43/03 मे अयनांश 24/54/35 जोडकर  5/28/36/38 सायन सूर्य हमने प्राप्त किया ।
अब 30 मे सायन सूर्य के अंशों को घटाया जैसे 30.00.00 मे 28.36.38 घटाया तो 1/23/22 भोग्यांश प्राप्त हुआ ।
इस भोग्यांश मे काशी का सायन सूर्य के स्वोदय मान 335 से गुणा किया जैसे 1/23/22 ×335 =464/41/50 आया इसमें 30 से भाग देने से लब्धि 15/29/23 पलादि भोग्य काल प्राप्त हुआ ।
इस पलादि भोग्य काल को पलादि इष्ट काल के पलात्मक मान 10×60+27=627 मे घटाया जैसे 627.00.00 मे 15.29.23 घटाया तो 611/30/37 आया ।
इसमें सायन सूर्य के अग्रिम राशि तुला का स्वोदय मान को  611-335 घटाया तो शेष 276/30/37 आया इसमें वृश्चिक का स्वोदय मान 345 घटाया मगर नही घटा अतः तुला राशि शुद्ध संग्यक और वृश्चिक राशि अशुद्ध के रूप मे प्राप्त हुआ ।
अब इसी शेष मे 30 से गुणा कर अशुद्ध राशि के स्वोदय मान 345 से भाग देने पर लब्धि अंशादि प्राप्त होगा जैसे 276/30/37 मे 30 से गुणा किया तो 8285/18/30 आया इसमें अशुद्ध राशि वृश्चिक का स्वोदय मान 345 से भाग दिया तो 24/0/55 अंशादि आया इसको शुद्ध राशि तुला के अंक 7 मे जोडा तो 7/24/0/55 आया इसमें अयनांश 24/54/35  घटाया तो 6/29/6/20 स्पष्ट लग्न प्राप्त हुआ ।

नोट- लग्न भुक्त और भोग्य दोनो रीति से निर्धारित किया जाता है यंहा हमने भोग्य रीति का प्रयोग किया है ।

    ।। इष्टकाल अल्प होने पर लग्न साधन की रीति ।।
भाग्योल्पकालात्खत्रिघ्नात्स्वोदयाप्तलवादियुक ।
रविरेव भवेलग्नं सषड्भार्कान्निशातनु: ।।
पूर्व श्लोक मे लग्न स्पष्ट करने की जो विधि बताया है उसमें प्राप्त भोग्यकाल से इष्टकाल अल्प हो तो (अर्थात् इष्टकाल से भोग्यकाल न घटे) तो उस पलात्मक इष्टकाल को ही 30 से गुणा करके सायन सूर्य राशि के स्वोदय मान से भागदेने पर जो अंशादि लब्धि प्राप्त हो उसको तात्कालिक स्पष्ट सूर्य मे जोडने से लग्न स्पष्ट होता है ।

(2) लग्न निर्धारित करने की एक विधि काशी के पंचांगो मे मिलती है जो बहुत ही सहज है इसमें एक अयनांश संबंधित सायन स्फुट लग्न सारणी होती है जैसे-
यह सारणी है । इस सारणी से लग्न निकालने की सरल विधि ये है कि स्पष्ट सूर्य के राशि अंशों को सारणी मे देखे इसमें बांये के लाइन मे राशि और उपर के लाइन मे अंश होता है इस प्रकार सूर्य के राशि अंश से कोष्ठक फल प्राप्त कर इष्टकाल जोडकर प्राप्त योगफल को कोष्ठक सारणी मे देखे जिस राशि अंश के सामने योग फल होता है वह राशि अंश लग्न होता है ।
जैसे 21/09/2017 को स्पष्ट सूर्य 5/03/30/36 है अतः राशि 5 और 3 अंश के नीचे देखा तो 29/17/47 आया इसमें इष्टकाल 10/27/15 जोडा तो 39/45/02 आया इसको कोष्ठक मे देखा तो 6 राशि 29 अंश आया ।
उपरोक्त विधि से भी 6/29/6/20 आया है अतः दोनो विधि से लग्न एक समान है ।

(3) आजकल कंप्यूटर साफ्टवेयर का प्रचलन बढ गया है हर आदमी के पास एंड्रॉयड मोबाइल है हर कोई साफ्टवेयर का प्रयोग कर रहा है जो शुद्ध गणित करता है और बहुत ही कम समय मे सभी चार्ट निकल जाता है और गणितीय भुल की संभावना नहीं होती है ।
21/09/2017 का 10.00 AM वाराणसी (काशी) का लग्न चक्र साफ्टवेयर से  निकाला तो लग्न 6/29/46/33 आया है ।जिसका फोटो हम यंहा दे रहे है ।
इस तरह 3 प्रकार से लग्न निकाला गया और तीनों का लग्न लगभग एक जैसा ही आया है अर्थात यह सिद्ध होता है कि ये तीनों लग्न एक ही विधि से निर्धारित किया गया है ।
                ।।लग्न से संबंधित विशेष चर्चा ।।
अथाहं संप्रवक्ष्यामि तवाग्रे द्विजसतम ।
 भाव होरा घटी संग्य लग्नाति पृथक पृथक ।।
महर्षि पराशर ने कहा है हे मैत्रेय अब मै भाव लग्न होरा लग्न और घटी लग्न को पृथक पृथक कहता हूँ ।
लग्न विवेक नामक ग्रंथ मे 2 प्रकार का लग्न लिखा है ।
 गिरं गुरूं गणेश्च नत्वा लक्ष्मीं तदीश्वरम् ।
 अदृग्दृक्फलसिद्धयर्थ द्विधा लग्न विविच्यते ।।
लग्न को समझने के लिये सबसे पहले हमे राशियों को समझना होगा क्योंकि यही राशियां आगे चलकर लग्न मे परिवर्तित हो जाती है ।
राशियों के संबंध मे शास्त्रों मे लिखा है ।
  नक्षत्राणां समुहो यः स राशिरिति कथ्थयते ।
  भवृतस्यार्कभागो$पि राशि रेवाभिधीयते ।।
आकाश मे जो नक्षत्रों (ताराओ) के समूह है उसे ही राशि कहते है एवं क्रांतिवृत के बारहवें भाग को भी राशि ही कहते है ।
नोट- सूर्य अपनी पूर्वाभिमुख गति से जिस मार्ग से चलता हुआ प्रतीत होता है उसे क्रान्ति वृत या भवृत कहते हैं उसके निकट स्थित रेवती के तारान्त विंदु से क्रान्ति वृत के तुल्य 12 भाग मेषादि 12 राशियां कही जाती है मेषादि प्रति राशि के आदि और अंतगत दो दो कदम्बप्रोत वृत के बीच मे जिलग्न-कसमूह है उन सबो को मेष आदि राशि संग्या है और नक्षत्र विम्बो के समूह राशि का शरीर और क्रान्ति वृत मे राशि का स्थान कहा जाता है ।
इसलिए स्थान और विम्ब (देह) भेद से राशि दो प्रकार की होती है 1- स्थान रूप 2- क्रान्ति विम्ब अर्थात् विंदु रूप ।
राशि नामुदयो लग्नमित्युक्तं कोषकारकै: चूंकि इन्हीं राशियों के उदय को लग्न कहा जाता है अतः राशि के भेद से लग्न भी 2 प्रकार का होता है । 1- भविम्बीय लग्न (नक्षत्र विम्बोदय वश) और दूसरा भवृतिय लग्न(क्रांति वृतिय स्थानोदय वश)  ।
अभी तक आपने दो लग्न के बारे मे जानकारी प्राप्त किया अब इन दोनो लग्नों से क्या जानकारी होता है इसको जानने के लिये अगला श्लोक लेते है ।
एतयोर्लग्नयोर्के पृथगस्ति प्रयोजनम् । जन्म यात्रा विवाहादौ भविम्बिय फलप्रदम् ।। लग्नं ग्राह्यम् भवृतिय ग्रहणादि प्रसिद्धये ।
चूंकि भविम्बिय लग्न से ही यात्रा विवाहादि अथवा जन्म पत्रिका के तनु आदि  12 भावो के फल का ग्यान प्राप्त होता है इसलिए इसको भाव लग्न कहा जाता है ।
भाव लग्ने अदृष्ट फल प्रदत्वम्- शास्त्रों मे अदृश्य फल की गणना का आधार भाव लग्न ही माना गया है भवृतिय लग्न नही ।
भवृतिय लग्न के संबंध मे शास्त्रों मे स्पष्ट निर्देश है ।
गृहीतं गणितस्कन्धे भवृतियं विलग्नकम्म् ।।
स्वस्वदृष्टिवशाद्यस्मान्नृणां दृकप्रत्ययो भवेत् ।
सिद्धांते साधितं तस्मालग्नं स्वस्वोदये: पृथक ।।
 मुनियों ने ग्रहणादि ग्यानार्थ गणित स्कन्ध मे क्रान्तिवृतिय लग्न ग्रहण किया है प्राणियों को अपनी दृष्टि से ही कोइ दृश्य पदार्थ प्रत्यक्ष होता है । इसलिए सिद्धांत स्कन्ध मे अपने स्थानिय भवृतिय राश्युदय द्वारा लग्न साधन किया गया है ।
भाव लग्ने अदृष्ट फल प्रदत्वम् ।
  राशि विम्ब वशादेव फलं भवति देहिनाम् ।
 शुभाशुभं सदा, नैव स्थानविंदोर्भवृतगात् ।।
प्राणियों को सदा राशि के बिम्ब वश ही शुभाशुभ फल की प्राप्ति होती है क्रान्तिवृतिगत बिन्दु रूप से नही ।
यह श्लोक स्पष्ट रूप से सिद्ध कर रहा है कि राशि विम्ब वशोदय लग्न (भविम्बिय लग्न) ही फल कथन मे अथवा शुभाशुभ फल की प्राप्ति मे ग्राह्य है स्थानोदय वश लग्न ( भवृतिय लग्न )केवल ग्रहणादि की गणना तक ही प्रयोग किया जा सकता है ।
उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट हो गया है कि जन्म कुण्डली का निर्माण भाव लग्न से करना चाहिए स्थानोदय वश लग्न अथवा भवृतिय लग्न से नही करना चाहिए ।

अतः अब हम यंहा महर्षि पराशर कृत तीनों लग्न (भाव लग्न ,होरा लग्न, घटी लग्न) निकालने की विधि यंहा लिखते है ।

                         ।। लग्न साधन ।।
                      ::-- भाव लग्न ::--
इष्ट घट्यादि भक्तवा पंच्चभिर्मादिकं फलम् ।
योज्यमौदयिके सूर्ये भावलग्नं स्फुटं च तत् ।।
अर्थात् सूर्योदय से घट्यादि इष्ट काल मे 5 से भाग देकर लब्ध राश्यादि फल को औदयिक सूर्य मे जोडने से स्पष्ट भाव लग्न होता है ।
प्रकांतर से इसका सूत्र इस प्रकार है इष्ट काल*30÷5= इष्टकाल* 6 = लब्धी अंश कला जैसे- 21/09/2017 को दिन 10.00 (am)का वाराणसी (काशी) जनपद उत्तर प्रदेश में जन्मे जातक का इष्टकाल 10/27/35 घटी पल है इसमें 6 से गुणा किया तो गुणांक 62/45/30 आया 62अंश को राशि बनाया तो 2/2/45/30आया इसको औदयिक सूर्य 5/03/30/36 मे जोडा तो 7/06/36/06 आया अर्थात् वृश्चिक लग्न 06 अंश पर है ।

अब यंहा भाव लग्न 7/06/36/06 प्राप्त हुआ है जबकी उपरोक्त तीनों प्रकार से प्राप्त लग्न 6/29/46/33 के समान ही आया है अतः यह सिद्ध होता है कि उपरोक्त तीनों लग्न भाव लग्न नही है और यदि ये भाव लग्न नही है तो ये स्थानोदय वश क्रांति वृतिय लग्न अथवा भवृतिय लग्न ही है क्योंकि उपरोक्त लग्न जो सबसे पहले हमने निकाला है उसमें स्पष्ट लिखा है कि ये काश्योदय मान से गुणित और भाजित है अतः वह लग्न स्थानोदय वश अर्थात् भवृतिय लग्न है और इस लग्न से ग्रहण आदि की गणना तो किया जा सकता है जन्म कुण्डली और विवाह यात्रादि गणना नहीं कर सकते है ।

होरा लग्न-
तथा सार्धद्विघटिका मितादर्कोदयाद् द्विज ।
प्रयाति लग्नं तन्नाम होरा लग्नं प्रचक्षते ।।
 घटयादिकं द्विध्नं पश्चाप्तं भादिजं च यत् ।
 योज्यमौदयिके भानौ होरा लग्नं स्फुटं च तत् ।।
अर्थात् इष्ट काल के घटी पल को 2 से गुणा करके उसमें 5 के भाग देने से जो अंशादि लब्धि होगी उसको उदय कालिक सूर्य मे जोडने से होरा लग्न होता है ।

घटी लग्न-
कथ्यामि घटी लग्नं श्रृणुत्वं द्विजसतम ।
सूर्योदयाद समारम्भ्य स्वेष्टकालावधि क्रमात ।।
एकैकघटिकामानात लग्नं यद्याति भादिकम् ।
तदेव घटिकालग्नं कथितं नारदादिभि: ।।
राश्यस्तु घटी तुल्या:प्लाधैप्रमितांशका:।
योज्यमौदयिके भानौ घटी लग्नं स्फुटं हि तत् ।।
अर्थात् सूर्योदय से आरंभ करके अभिष्ट काल पर्यन्तं एक एक घटी मान से जो समय वितता है उसको नारदादि मुनियों ने घटी लग्न कहा है ।इसका साधन इस प्रकार होता है ।
इष्टकाल तक जितनी घडी हो रही है उतनी राशि संख्या तथा जितने पल है उसका आधा अंशादि मानकर औदयिक सूर्य मे जोडने से राश्यादि घटी लग्न होता है ।
नोट- सूर्य मे राश्यादि फल जोडने पर 12 से अधिक हो तो उसमें 12 घटा लेना चाहिए ।

चूंकि जन्म पत्रिका निर्माण मे भाव लग्न ही ग्राह्य है अतः होरा लग्न और घटी लग्न को संक्षिप्त मे बताकर भाव लग्न उदाहरण सहित बताया गया है ।


     नोट- विचारणीय बात यह है कि जब जन्म कुण्डली के द्वादश भावो की संरचना भाव लग्न से करना चाहिए ऐसा स्पष्ट मत होने के बाद भी विद्वानों ने भवृतिय लग्न को क्यों स्वीकार किया है आज भी सभी ज्योतिषी इसी मत का पालन करते हुए भवृतिय लग्न से ही जन्म कुण्डली का निर्माण कर रहे है इसका क्या कारण है और क्या ये उचित है ।
इस संबंध मे वृहद्ज्योतिसार के लेखक लिखते है ।
भवृतस्थानबिन्दुनामुदय क्षितिजे यदा ।
नैवं नक्षत्र बिम्बानाम् कदाचितदुदयस्तदा ।।
उन्नाम्यन्ते शरैरूर्ध्व नाम्यन्ते वा कुजादध:।
जिनाधिकाक्षदेशे तु सदैवेति स्थितिध्रुवा ।।
जिस समय भवृतिय स्थान विन्दुओ का अपने अपने क्षितिज मे उदय होता है उस समय नक्षत्रों के बिम्बों का उदय नही होता है स्थानोदय के समय मे नक्षत्रो के बिम्ब अपने अपने शर के द्वारा या तो क्षितिज से उपर अथवा क्षितिज से नीचे रहते है 24 से अधिक अक्षांश देश मे सब नक्षत्रों की सदा यही स्थिति रहती है । क्योंकि अश्विन्यादि सब नक्षत्रों के कुछ न कुछ शर उपलब्ध होते ही है ।
शास्त्रकार आगे कहते है ।
तस्माद् दृष्टफलायैय विलग्नं क्रांति वृत्तगतम् ।
अदृष्ट फल सिद्धयर्थं बिम्बियं भाव संग्यकम् ।।
साधितं मुनिवर्यैस्तन्न ग्यात्वा येन केनचित् ।
यवनेन प्रमादाद्वा कुतर्काद्वा स्फुटभ्रमात् ।।
स्वस्वदेशोदयै:सिद्धाल्लग्नीनात् तुर्यभावत: ।
षष्ठांशयोजनाद् भावना आर्षभिन्ना प्रसाधिता: ।।
अभवन सहसा केचिद् विग्यास्तदनुगास्तत: ।
भारते यवनाक्रांते परतंत्रत्वमागते ।।
ज्योतिर्विद$त्र सर्वे$पि संमील्य ग्यानलोचनम् ।
विस्मृत्यैव शुभा रीतिं नीलकण्ठमुखारविद:  ।।
अन्धेन नीयमानान्धा इव संचालिता बुधा: ।
इसी (उपर कहे हुए) हेतु से दृष्ट फल (ग्रहण बिम्बोंदयादि) ग्यान के लिये स्वस्वदेशोदयसिद्ध स्थानिय लग्न तथा अदृष्ट (विवाह यात्रादि मे शुभाशुभ) फल ग्यानार्थ बिम्बिय लग्न का साधन मुनियों ने किया ।
मगर किसी ने मुनियों के कहे हुये तत्व को न जानकर प्रमादवश या कुतर्क (किसी लालबुझकड ने समझा कि जब स्वस्वदेशोदयसिद्ध लग्न से दृष्ट (ग्रहणादि )फल मिलते है तो इसी से अदृष्ट फलादेश भी करना चाहिए ऐसा कुविचार) अथवा स्वस्वदेशोदयसिद्ध लग्न को स्पष्ट (भाव लग्न से अच्छा) होने के भ्रम से स्वस्वदेशोदयसिद्ध लग्न से ही आर्षविरूद्ध द्वादश भावो का साधन प्रकार बनाया ।फिर सहसा (इसमें दोषों को विना विचारे ही प्रमादवश) बहुत से ज्योतिषी भी उसके अनुयायी बन गये एवं भारत को यवनों के आक्रमण से परतंत्र हो जाने पर सब ज्योतिषीयो ने इसी मत को अपनाया फिर नीलकण्ठ आदि भी अपने ग्यान रूपी नेत्र को बंद करके अंधे के सहारे चलने वाले अंधो के समान चलने लगे जो परम्परा बन गई ।
वृहद ज्योतिषार के लेखक कहते है कि इस अनर्थ को देखकर ज्योतिर्विद श्री कमलाकर भट्ट ने अपने तत्व विवेक नामक ग्रंथ मे लग्न के अंश तुल्य ही (लग्न राश्यादि मे एक एक राशि जोडकर) अंशवाले  तुल्य उदयमान से जो द्वादश भाव का साधन किया है हे ग्रह गोलग्य सर्वदा (अदृष्ट फल)ग्यानार्थ उन्हीं भावो को ग्रहण करना चाहिए उन मुनियों के कहे हुये भावो मे 15 अंश आगे तक (पुरे 30 अंश के भीतर) उस भाव का फल कहा गया है ।
किंतु लोक मे लोगो ने अनार्ष (आर्ष विरुद्ध) स्वस्वदेशोदयसिद्ध जो द्वादश भावो की कल्पना की है उन भावो को फलकथन (विवाह यात्रादि) मे कभी भी उपयुक्त नही मानना चाहिए ।
इसका कारण बताते हुये लेखक कहते है पृथ्वी पर रहने वाले सबके क्षितिज मे जिस प्रकार बिम्बिय 12 राशियों का उदय होता है उसी प्रकार स्थानिय (भवृतिय) सब राशियों का उदय नही होता है ।किसी स्थान पर 10 किसी स्थान पर 8कंही 6 और कंही 2 ही राशि का उदय होता है । ऐसे मे जिस स्थान पर सभी राशियों का उदय नही होता है वंहा द्वादश भावो कि सिद्धि किस प्रकार हो सकती है ।
इसी पृथ्वी पर 66 अक्षांश स्थान मे जब कदम्ब तारा खमध्य मे आती है तो वंहा एक साथ 12 राशियां उदय होती है उस समय जंहा कौन लग्न माना जाये । अथवा राशि का आधा (15 अंश ) होरा होती है इस बात को सब मानते है इसलिये राशि लग्नोदय मान का आधा होरा लग्नोदयनान होना चाहिए ।जब होरा लग्न का उदयमान अढाई घटी हो तो लग्न का मान पांच घटी होना ही चाहिये । ये बात तो साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है ।

इस प्रकार अदृष्ट फलार्थ स्वस्वोदय लग्न मे अनेकों विसंगतियां है जैमिनि से आयुर्दाय साधन करने मे होरा लग्न अढाई घटी से सिद्ध मान लेकर विचार करते है किंतु लग्नमान स्वस्वोदयसिद्ध लेते है इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है ।जंहा पलभा 13 है वंहा होरा लग्न के उदयमान से स्वोदयसिद्ध पूर्ण लग्न का मान अल्प हो जाता है क्या यह महान आश्चर्य नही है ।
उदाहरण के द्वारा समझे पलभा 13 इसमें 10 से गुणा करने पर 130 होगा इसको मेष लग्न के लंकोदय मान 278 मे घटाने पर 148 पल आयेगा वंही होरा लग्न (15अंश) का मान 150 पल है ।
इसी प्रकार जंहा पलभा 28 है वंहा मीन और मेष का स्वस्वोदय मान शुन्य से भी अल्प हो जाता है जैसे 28 ×10 =280 जबकी मेष का स्वसवोदय मान 278 ही है अतः यंहा - 2 पल हो जाता है ऐसे मे यंहा स्वस्वोदय मान से लग्न की सिद्धि किस प्रकार हो सकता है ।
मीन लग्न के अंत मे और मेष लग्न के आरंभ मे आधा आधा घटी लग्न गण्डांत होता है जिसे हर कार्य मे त्याग करना चाहिए किंतु जंहा स्वदेशोदय सिद्ध लग्न मान गण्डांत घडी के तुल्य या उससे भी अल्प हो तो वंहा मुनियों के वचनों की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है ।

अंत मे लेखक कहते है ।
तानहं प्रार्थये विग्यान् सुहृदश्च कृतांज्जलि: ।
यद्भवन्तो$नृतं मार्ग त्यक्तवा गच्छन्तु सत्पथम् ।।
एतावद्यिनपर्यन्तं यदस्माभि: प्रमाद:  ।।
लेखक कहते है हे सिद्धांत होरा संहिता के जानकारों आप सभी सुहृदो से हमारी करबद्ध  प्रार्थना है आप सभी असत मार्ग को छोडकर सत्यपथ पर पर चले इतने दिन तक हम लोगो ने प्रमाद वश जो किया वह तो बीत गया उसके लिये पंडितों को शोक नही करना चाहिए कृतं तद् विगतं ततु न शोच्यंजातु पण्डितै: जो पीछे हो गया सो हो गया उसकी तो अब कुछ प्रतिक्रिया नही है आगे फिर प्रमाद न हो ऐसा यत्न सर्वदा करना चाहिए ।

अर्थात् जन्म कुण्डली आदि का निर्माण और फलकथन आदि भाव लग्न से ही करना चाहिए भवृतिय लग्न से नही यह शास्त्रकार का स्पष्ट मत है ।





टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
Panchang Banaras Ka hai Surya spast Meerut Ka krna hai kaise kiya Jaye kripya bataiye...samajh nhi aa rha

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