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ग्रह स्पष्ट करने की सरल विधि

प्रिय पाठक गण ज्योतिष ऐसा विषय है जिस पर बहुत सावधानी से काम करना पड़ता है कहा जाता है सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी असावधानी द्वारा किया गया कार्य कार्य क्षमता को बाधित कर देता है खासकर के ज्योतिष जैसे व्यापक क्षेत्र में तो असावधानी बिलकुल नहीं होना चाहिए इसलिए जन्म पत्रिका बनाते समय हर बिंदु पर गहराई से विचार करना चाहिए हमारी एक गलती पूरी पत्रिका को बेकार कर देगा यह वैसा ही है जैसा नींव यदि कमजोर हो तो पूरी बिल्डिंग भरभरा कर गिर जाती है | भवन मजबूत हो इसके लिए ईंट , सीमेंट ,रेत ,गिट्टी छड़ आदि उत्तम श्रेणी {क्वालिटी } का होना चाहिए पर इससे भी अधिक आवश्यक यह है कि भवन बनाने वाला कुशल कारीगर होना चाहिए अगर ईंट बालू छड़ सीमेंट उत्तम ही हो मगर कारीगर अनाड़ी हो तो भी बना हुआ भवन गिर जायेगा क्योंकि यदि भवन का नींव टेढ़ा हो कमजोर हो तो वह माकन धराशायी हो जायेगा अतः आवश्यकता है कि सामग्री के साथ साथ कारीगर भी अच्छा हो ठीक ऐसे ही जन्म पत्रिका [जन्म कुंडली ] के निर्माण में भी समझना चाहिये ज्योतिषी परिपक्व होना चाहिये और ज्योतिषी कुशल तब होता है जब हर कार्य को सावधानी पूर्वक करता हो |

होरा साधन और चक्र निर्माण

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जन्म पत्रिका का निर्माण तीन वर्गों का होता है सप्त वर्गी, दश वर्गी, और षोडश वर्गी । सामान्यतः सप्त वर्गी जन्म पत्रिका ही ज्यादा प्रचलन मे है अतः हम सप्त वर्गी का ही वर्णन करते है । सप्त वर्गी के सात वर्गों के नाम इस प्रकार है लग्न, होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश, नवमांश, द्वादशांश, और त्रिशांश । जन्म पत्रिका मे लग्न और चलित के बाद होरा चक्र का नम्बर आता है । सबसे पहले हम समझते है कि होरा का अर्थ क्या है । होरा राशि विभाजन का खंड है अर्थात् एक राशि किसी भी राशि के आधे भाग को होरा कहा जाता है जैसे लग्न 5 घटी की होता है तो उसका होरा अढाई घटी की होगा । यंहा प्रकरण राशि का है अतः राशि का आधा भाग होरा होता है इसको सही तरह समझने के लिये हम ऐसे समझ समझ सकते है कि एक राशि के दो भाग है प्रथम भाग को प्रथम होरा और द्वितीय भाग को द्वितीय होरा कह सकते है इस प्रकार देखा जाय तो एक राशि 30 अंश का होता है तो उसका आधा अर्थात् 15 अंश का प्रथम होरा होता है और प्रथम 15 अंश के बाद के 15 अंश द्वितीय होरा होता । इन राशियों के होरा स्वामी सूर्य और चंद्रमा होते है । सौर मंडल की राशियां भी सम विषम होती ह

चलित चक्र और प्रयोग विधि

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जन्म पत्रिका मे लग्न के बाद दूसरा स्थान चलित चक्र का आता है फलित ज्योतिष मे कहा गया है । विना चलित चक्रेण यथोक्तं भावजं फलम् । नारि यौवन सम्प्राप्तं पतिहीना यथा भवेत् ।। जिस प्रकार से षोडश शृंगार से युक्त भरपुर यौवन को प्राप्त षोडशी पत्नि के विना कोइ मुल्य या कोइ सार्थकता नहीं रह जाती है ठीक उसी प्रकार से षोडश वर्ग के अलंकार से युक्त जन्म पत्रिका का चलित चक्र के विना कोइ सार्थकता नहीं रह पाती है । शास्त्रों मे लिखा है । भाव प्रवृतौ हि फल प्रवृति: पूर्ण फलं भावसमाकेषु । ह्रास: क्रमाद् भावविराम काले फलस्य नाश:कथितौ मुनिन्द्रै:।। अर्थात् भाव की पुष्टि से ही फलादेश की ओर प्रवृत होना चाहिए ।जिस भाव के अंश पूर्ण हो तो पूर्ण फल उस भाव को मिलेगा भाव के विराम होने पर या ह्रास होने पर उस भाव का फल भी नष्ट हो जाता है । भाव और संधि के विचार से ग्रहो को ठीक ठीक स्थिति बताने के लिये ही चलित कुंडली बनाई जाती है भाव और संधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव का आरंभ कंहा से है मध्य कंहा है और अंत कंहा है । नोट- पिछले पोस्ट मे आपने भाव लग्न निकालने की विधि से भाव लग्न निर्धारित कैसे करते

अयनांश साधन की रीति ।

      ।। इष्टकालिक अयनांश साधन की रीति ।। अथ शराब्धियुगै रहित: शक्रो, व्यवहृत: खरसैरयनांशकां:। मधुसितादिकमासगणं प्रति,  शरपलै: सहितं कुरू सर्वदा ।। अयनांश जानने के लिये शाके संवत् मे 445 घटाकर जो शेष बचे उसमें 60 से भाग देने पर लब्धि अयनांश और शेष उसकी कला होती है ।चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से जन्म मास तक जितने मास विते हो उस संख्या को 5 से गुणा करने पर जो लब्धि आये वह विकला होता है और इस विकला को जोडने से इष्टकालिक अयनांश होता है ।                            || -उदाहरण- || शाके संवत् प्राप्त करने का सबसे सरल तरीका है सन् मे 57 जोडने से विक्रम संवत् होता है और इस विक्रम संवत् मे 135 घटाने से शाके संवत् होता है जैसे 2017मे 57 जोडा तो 2074 आया इसमें 135 घटाया तो 1929 शाके संवत् प्राप्त हुआ । इस शाके संवत् 1929 मे 445 घटाया तो 1494 आया इसमें 60 से भाग दिया तो लब्धि 24 और शेष 54 आया विकला जानने के लिये हमने चैत्र माह का अंक 1 लिया इसमें 5 से गुणा करने पर गुणनफल 5 आया इसको हमने 24/44 मे जोडा तो इष्टकालिक अयनांश 24/44/05 आया । ग्रह लाघव के मत से भी अयनांश निकालने की यही विधि है अंतर क

भाव लग्न का महत्व और निकालने की विधि ।

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           ।। लग्न परिचय और निर्धारण  ।।        तात्कालार्क: सायन: स्वोदघ्ना: भोग्यांशा: खत्र्युद्घृता भोग्यकाल: । एवं यातांशैर्भवेद्याताकालो भोग्य: शोध्य$भीष्टनाडीपलेभ्य: ।। तदनु जहीह गृहदयांश्च शेषं गगनगुणघ्नभशुद्धहल्लवाद्यम । सहितमजादिगृहैशुद्धपूर्वैर्भवति विलग्नमदो$यनांश हीनम् ।। जिस दिन का और जिस समय का लग्न निर्धारण करना है उस दिन का इष्टकाल, अयनांश, और स्पष्ट सूर्य को नोट कर लेना चाहिये । इष्टकालिक स्पष्ट सूर्य मे अयनांश जोडकर सायन सूर्य बना लेना चाहिये । अयनांश कैसे निकालते है इसका विवरण अलग से दिया गया है पाठक गण इसी ब्लाग मे अयनांश साधन की रीति नामक पोस्ट पढ सकते है । सायन सूर्य के अंशों को 30 मे घटाकर भोग्यांश निकालकर नोट कर लेना चाहिये । इस भोग्यांश मे स्वोदय मान से गुणा कर 30 से भाग देने पर लब्धि पलादि भोग्य काल होता है । इस पलादि भोग्य काल को प्लात्मक इष्टकाल मे घटाकर शेष को सायन सूर्य की अग्रिम राशि के स्वोदय मान क्रम से घटाना चाहिए जितनी राशियों के स्वोदय मान घट जाये वो शुद्ध राशि और जो न घटे वह अशुद्ध राशि होता है । फिर शेष को 30 से गुणा करके अशुद्ध राशि

सूर्योदय से इष्टकाल का निर्धारण ।

जन्म कुण्डली निर्माण मे इष्टकाल और लग्न का बहुत ही महत्व होता है यह आप सब दिनमान से लग्न निकालने की विधि से जान चुके होंगे ।यह इष्टकाल जितना शुद्ध होगा उतना ही शुद्ध लग्न होगा और उतना ही शुद्ध कुण्डली अर्थात् जन्म पत्रिका बनेगी । कहने का मतलब है इष्टकाल जन्म पत्रिका रूपी महल (मकान) का नीव (आधार) है यह आधार जितना मजबूत होगा मकान उतने मजबूत बनेगी इसी प्रकार से इष्टकाल जितना शुद्ध होगा कुण्डली उतनी ही शुद्ध बनेगी । अभी तक आपलोगों ने दिनमान से इष्टकाल निकालने की विधि को जाना है अब हम सूर्योदय से इष्टकाल और लग्न निकालने की विधि लिखेंगे जो दिनमान की विधि से बहुत ही आसान और सरल है इसे हम आसानी से समझ सकते है । जिस प्रकार हम दिनमान से लग्न निकालते है ठीक उसी प्रकार से सूर्योदय से निकालेंगे वैसे दोनो का परिणाम एक समान ही आता है पर कभी कभी एकाध पल का अंतर आ जाता है । सबसे पहले हम पंचांग मे लिखित सूर्योदय को नोट कर ले इस सूर्योदय मे संकेता अनुसार रेलवे अंतर का संस्कार करे ।संस्कार करने के बाद जो समय आयेगा उसको नोट करले तथा जन्म समय मे इस संस्कारित समय को घटा कर शेष को घटी पल बनाले तथा इ

दिनमान से इष्टकाल और लग्न निकालने की विधि ।

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प्रिय पाठक गण जन्म पत्रिका निर्माण मे सबसे पहला कार्य है लग्न का निर्धारण । लग्न निर्धारण जितना शुद्ध होगा कुण्डली उतनी ही शुद्ध बनेगी इसलिए लग्न का निर्धारण बहुत ही महत्वपूर्ण है । लग्न निर्धारण का पहला अंग है इष्टकाल इसी इष्टकाल के आधार पर जन्म पत्रिका या कुण्डली का निर्माण किया जाता है । इष्ट काल निकालने की शास्त्रों मे कइ प्रकार की विधि बताया गया है मगर 2 विधि विशेष प्रचलित है 1- दिनमान से 2- सूर्योदय से हम यंहा दिनमान से इष्टकाल और इष्टकाल से लग्न बनाने अथवा निकालने की विधि बता रहा हूं ।           ।। दिनमान से लग्न निकालने की पद्धति ।। यदि पंचांग की सहायता से जन्म पत्रिका का निर्माण करना हो तो सबसे पहले पंचांग मे लिखा दिनमान नोट करले इसके बाद उक्त दिनमान का आधा करके अर्ध दिनमान या दिनार्ध भी नोट करले इसी प्रकार से 60 मे दिनमान घटा कर रात्रिमान नोट करले और रात्रिमान को आधा करके दिनमान मे जोडकर अर्धरात्रिमान या रात्यर्ध भी नोट करले । यदि जन्म समय दिन के 12 से पहले का हो तो जन्म समय 12 मे घटावे यदि जन्म समय 12 के बाद हो तो जन्म समय को घटी पल बनाकर दिनार्ध मे जोडे । किसी भ

जन्म कुण्डली निर्माण कैसे करे ।

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ज्योतिष रूपी कल्प वृक्ष का मूल ग्रहगणित है सिद्धान्त संहिता और होरा इसकी तीन शाखायें है षोडश वर्ग उसकी सोलह मंजरियाँ है और फलित इस वृक्ष का सुशोभित मीठा फल है । परंतु इस मीठे फल को प्राप्त करने के लिए हमे जन्म पत्रिका का निर्माण करना होगा । आइये जानते है जन्म कुण्डली का निर्माण कैसे होगा । जन्म कुण्डली निर्माण के लिए हमे तीन चीजों की आवश्यकता होती है । 1- जन्म तिथि या जन्म दिनांक 2- जन्म समय और 3- जन्म स्थान ये तीनों जब शुद्ध और सही प्राप्त होगा तो शुद्ध जन्म कुण्डली का निर्माण होगा ।              ।।जन्म तिथि या जन्म दिनांक- ।। पहले के जमाने मे जन्म तारीख तिथि मिति और संवत् मे लिखा जाता था जैसे चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा 2074  आज के समय मे जन्म तारीख या दिनांक मे लिखा जाता है जैसे 29 मार्च 2017 मगर दिनांक बहुत सावधानी से लिखना चाहिये कभी कभी रात के 12 बजे के बाद का दिनांक लिखते समय अक्सर त्रुटि हो जाया करती है । हमारे भारत मे सूर्योदय से सूर्योदय तक एक दिन होता है मगर अंग्रेजी मे रात्रि 12 बजे के बाद दिनांक बदल जाता है इसलिए आजकल यदि 12 बजे रात्रि के बाद जन्म हो तो जन्म समय